राजा कृष्णदेव ने युद्ध में विजय के अवसर पर एक उत्सव का आयोजन किया। इस उत्सव की समाप्ति पर राजा कृष्णदेव ने कहा, "यह विजय मेरी अकेले की विजय नहीं है- मेरे सभी साथियों और सहयोगियों की विजय है। मेरी अपनी इच्छा है कि मैं मंत्रिमंडल के सभी सदस्यों को इस अवसर पर पुरस्कार दूं। मगर मेरी एक शर्त है, और वह है कि सभी को अलग-अलग पुरस्कार लेने होंगे। एक ही उपहार दो व्यक्तियों को नहीं मिल सकेगा।"
यह घोषणा करने के बाद राजा कृष्णदेव ने उस मंडप का पर्दा उठवा दिया...जिस मंडप में वे सारे पुरस्कार रखे हुए थे।
फिर क्या था...सभी लोग अच्छे से अच्छा पुरस्कार पाने को लालायित हो उठे। पुरस्कार वहां उपस्थित लोगों की गिनती के हिसाब से ही रखे गए थे।"
देखते ही-देखते सभी को एक-एक पुरस्कार मिल गया। सारे पुरस्कार ही कीमती थे। इसलिए जिसके हाथ जो पुरस्कार आया, वह उसी से संतुष्ट हो गया।
अन्त में बचा था सबसे कम मूल्य का पुरस्कार....एक चांदी की थाली। यह पुरस्कार उस आदमी के लिए था, जो दरबार में सबसे अंत में पहुंचा था।
सब लोगों ने इधर-उधर अपनी नजरें दौड़ाईं तो पता चला कि तेनालीराम अभी तक उपस्थित नहीं है। यह जानकर तो सभी खुश हो गए और सोचने लगे कि इस बेतुके बेढंगे व सस्ते पुरस्कार को लेते हुए हम सब तेनाली का खूब उपहास उड़ायेंगे।
अचानक तेनालीराम तभी दरबार में प्रवेश किया उसे वहां देखकर सभी दरबारी एक स्वर में जोर से बोल पड़े, " आइए, तेनालीराम जी, आपका अनोखा पुरस्कार आपका इंतजार कर रहा है। जल्दी जाकर महाराज से ग्रहण कीजिए।"
तेनालीराम ने सभी दरबारियों पर उचटती-सी दृष्टि डाली। सभी के हाथों में कोई न-कोई पुरस्कार था। किसी के गले में सोने की माला थी, तो किसी के हाथ में सोने का भाला, तो किसी के सिर पर सुनहरा पट्टा जड़ी रेशम की पगड़ी, तो किसी के हाथ में हीरे व किसी के हाथ में मोती की अंगूठी थी।
चतुर तेनाली की समझ में अब तक सारा नजारा आ गया था।
उसने चुपचाप अपने िहिस्से का पुरस्कार वह चांदी की थाली उठा ली। फिर उसने चांदी की उस थाली को अपने मस्तक से लगाया और उसे दुपट्टे से ढक दिया। वह भी ऐसे कि जैसे उस थाली में कुछ सामान रखा हुआ हो।
राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की यह हरकत देख ली थी। वह बोले, "तेनालीराम, तुम थाली को इस तरह दुपट्टे से क्यों ढक रहे हो ?"
" क्या करूं महाराज, अब तक तो मुझे आपके दरबार से हमेशा अशर्फियों से भरे थैले ही मिलते रहे हैं यह पहला अवसर है कि मुझे चांदी की एक थाली ही मिली है। मैं इस थाली को इसलिए दुपट्टे से ढक रहा हूं ताकि आपकी बात कायम रहे। लोग यही समझें कि तेनालीराम को इस बार भी महाराज ने अशर्फियों से भरा थाल पुरस्कार में अपने नीति-सलाहकार के रूप में दिया है।"
आज भी तेनालीराम की चतुराईभरी बातों से प्रसन्न होकर राजा कृष्णदेव राय ने गले से अपना बहुमूल्य रत्नजडि़त हार उतारा और थाली में डालते हुए बोले, " तुम्हारी थाली आज भी खाली नहीं रहेगी...सबसे बहुमूल्य पुरस्कार होगा।" अब तो तेनालीराम की बुद्धि के सभी कायल हो गए।
थोड़ी देर पहले तक जो दरबारी उसका मजाक उड़ा रहे थे... वे अब खिसियाते-से होकर एक-दूसरे के मुंह की ओर देख रहे थे, क्योंकि आज भी सबसे कीमती पुरस्कार तो तेनालीराम को ही मिला था।
यह घोषणा करने के बाद राजा कृष्णदेव ने उस मंडप का पर्दा उठवा दिया...जिस मंडप में वे सारे पुरस्कार रखे हुए थे।
![]() |
| तेनालीराम का अनोखा पुरस्कार |
फिर क्या था...सभी लोग अच्छे से अच्छा पुरस्कार पाने को लालायित हो उठे। पुरस्कार वहां उपस्थित लोगों की गिनती के हिसाब से ही रखे गए थे।"
देखते ही-देखते सभी को एक-एक पुरस्कार मिल गया। सारे पुरस्कार ही कीमती थे। इसलिए जिसके हाथ जो पुरस्कार आया, वह उसी से संतुष्ट हो गया।
अन्त में बचा था सबसे कम मूल्य का पुरस्कार....एक चांदी की थाली। यह पुरस्कार उस आदमी के लिए था, जो दरबार में सबसे अंत में पहुंचा था।
सब लोगों ने इधर-उधर अपनी नजरें दौड़ाईं तो पता चला कि तेनालीराम अभी तक उपस्थित नहीं है। यह जानकर तो सभी खुश हो गए और सोचने लगे कि इस बेतुके बेढंगे व सस्ते पुरस्कार को लेते हुए हम सब तेनाली का खूब उपहास उड़ायेंगे।
अचानक तेनालीराम तभी दरबार में प्रवेश किया उसे वहां देखकर सभी दरबारी एक स्वर में जोर से बोल पड़े, " आइए, तेनालीराम जी, आपका अनोखा पुरस्कार आपका इंतजार कर रहा है। जल्दी जाकर महाराज से ग्रहण कीजिए।"
तेनालीराम ने सभी दरबारियों पर उचटती-सी दृष्टि डाली। सभी के हाथों में कोई न-कोई पुरस्कार था। किसी के गले में सोने की माला थी, तो किसी के हाथ में सोने का भाला, तो किसी के सिर पर सुनहरा पट्टा जड़ी रेशम की पगड़ी, तो किसी के हाथ में हीरे व किसी के हाथ में मोती की अंगूठी थी।
चतुर तेनाली की समझ में अब तक सारा नजारा आ गया था।
उसने चुपचाप अपने िहिस्से का पुरस्कार वह चांदी की थाली उठा ली। फिर उसने चांदी की उस थाली को अपने मस्तक से लगाया और उसे दुपट्टे से ढक दिया। वह भी ऐसे कि जैसे उस थाली में कुछ सामान रखा हुआ हो।
राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की यह हरकत देख ली थी। वह बोले, "तेनालीराम, तुम थाली को इस तरह दुपट्टे से क्यों ढक रहे हो ?"
" क्या करूं महाराज, अब तक तो मुझे आपके दरबार से हमेशा अशर्फियों से भरे थैले ही मिलते रहे हैं यह पहला अवसर है कि मुझे चांदी की एक थाली ही मिली है। मैं इस थाली को इसलिए दुपट्टे से ढक रहा हूं ताकि आपकी बात कायम रहे। लोग यही समझें कि तेनालीराम को इस बार भी महाराज ने अशर्फियों से भरा थाल पुरस्कार में अपने नीति-सलाहकार के रूप में दिया है।"
आज भी तेनालीराम की चतुराईभरी बातों से प्रसन्न होकर राजा कृष्णदेव राय ने गले से अपना बहुमूल्य रत्नजडि़त हार उतारा और थाली में डालते हुए बोले, " तुम्हारी थाली आज भी खाली नहीं रहेगी...सबसे बहुमूल्य पुरस्कार होगा।" अब तो तेनालीराम की बुद्धि के सभी कायल हो गए।
थोड़ी देर पहले तक जो दरबारी उसका मजाक उड़ा रहे थे... वे अब खिसियाते-से होकर एक-दूसरे के मुंह की ओर देख रहे थे, क्योंकि आज भी सबसे कीमती पुरस्कार तो तेनालीराम को ही मिला था।

टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें