राजा से वफादारी

विजयनगर राज्‍य का अपने निकटस्‍थ राजा से काफी समय से मनमुटाव चल रहा था। तेनालीराम के विरोधीयों को राजा कृष्‍णदेव राय को उसके खिलाफ भड़काने का यह उचित अवसर जान पड़ा। जब एक दिन राजा कृष्‍णदेव राय अपने बाग में अकेले टहलते हुए पड़ोसी राज्‍य की समस्‍या के बारे में मन ही मन विचार कर रहे थे कि तभी एक दरबारी उनके पास आया बड़ी चालाकी से इधर-उधर की सुन-गुुुन लेता हुआ राजा कृष्‍णदेव राय के कान के पास फुसफुसाते हुुुए बोला, "महाराज ! कुछ सुना आपनेे?! "
   " यदि क्षमा करें और अभयदान का वचन दें तो कुछ कहूं?"
   " जो भी कहना चाहते हो, निस्‍संकोच कहो, डरने वाली कोई बात नहीं है आखिर मुझे भी तो पता चले कि तुम ऐसा क्‍या चाहते हो।"


राजा मंत्री
  
   " महाराज तेनालीराम आपसे दगा कर रहे हैं। वह पड़ोसी राज्‍य के राजा से मिले हुए हैं। वे आपके पड़ोसी राजा से सम्‍बन्‍ध बिगाड़ने में लगे हुए हैं।"
   " क्‍या बकते हो ?" राजा कृष्‍णदेव एकदम से बिफरकर बोले। उनको बेहद क्रोध आ गया था।
   " मैं तो पहले से ही जानता था महाराज ! तेनालीराम ने आपके ऊपर ऐसा जादू किया हुआ है कि आप उसके विरूद्ध कुछ भी नहीं सुन सकते, इसीलिए कुछ कहने सेे पहले मैंने आपसे क्षमायाचना की थी।"
   " तेनालीराम हमारे राज्‍य तथा हमारा सच्‍चा हितैषी है। वह कदापि ऐसा नहीं कर सकता। तुम्‍हें अवश्‍य ही कहीं से गलत सूचना प्राप्‍त हुई है।" राजा कृष्‍णदेव ने विश्‍वासभरी वाणी में दरबारी से कहा।
   " महाराज, जितना विश्‍वास आपको तेनालीराम की वफादारी पर है, उतना ही विश्‍वास मुझे अपनी इस सूचना की सच्‍चाई पर है। पूरी तरह जांच-परख कर ही मैं यह सूचना आप तक पहुंचाने आया हूं।"
   दरबारी के अपनी बात पर पुन: जोर देने पर राजा कृष्‍णदेव सोचने पर मजबूर हो गए। 
   राजा कृष्‍णदेव ने कहा, " ठीक है। मैं इस बात की सच्‍चाई का पता लगाऊंगा यदि तेनालीराम जरा-सा भी दोषी पाया गया तो उसे अवश्‍य ही कठोर दंड का सामना करना होगा।"
   राजा कृष्‍णदेव से आश्‍वासन पाकर दरबारी अपने निवास पर चला गया। 
   अगले दिन राजा कृष्‍णदेव ने तेनालीराम को एकांत में अपने पास बुलाया और बोले, " तेनालीराम, हमें सूचना प्राप्‍त हुई हैै कि तुम हमारे पड़ोसी शत्रु राजा से मिलकर हमारे राज्‍य को उसके अधीन करने में उसे सहायता पहुंचा रहे हो।" 
   तेनालीराम ने जैसे राजा कृष्‍णदेव से यह सब सुना तो वह अचंभि‍त रह गया था। वह राजा कृष्‍णदेव को इस बारे में क्‍या सफाई दे, उसे कुछ सुझाई नहीं दे रहा था।
   राजा कृष्‍णदेव ने जब तेनालीराम को इस तरह चुप्‍पी साधे देखा तो वह क्रोध से भर उठे और बोले, " तुम्‍हारे चुप रहने का मैं यही अर्थ लगाऊं कि तुम अपना अपराध स्‍वीकार कर रहे हो।"
राजा के मुख से यह बात सुनकर तो तेनालीराम की आंखें आंसुओं से भर उठीं उसने स्‍वयं को संभाला और संयमित वाणी से बोला, " महाराज की बात काटने का साहस मैं भला कैसे कर सकता हूं।"
   राजा कृष्‍णदेव तो क्रोध से भरे ही बैठे थे। तेनालीराम के इस उत्‍तर से और भी क्रोधित हो गए। वह बोले, " तुमने हमारे घोर शत्रु से सांठ-गांठ की है। अब तुुम उसी के राज्‍य में जाकर रहो, और इस राज्‍य की सीमा से तुरन्‍त निकल जाओ।"
   " मेरे इतने बड़े अपराध की आप इतनी मामूली सजा दे रहे हैं राजन् !" तेनालीराम ने राजा कृष्‍णदेव से कहा।
   " तुम्‍हारी अब तक की वफादारी और स्‍वामिभक्ति देखते हुए, मेरे और तुम्‍हारे मित्रतापूर्ण सम्‍बन्‍धों को देखते हुए तथा तुम्‍हारे पद की गरिमा के अनुरूप मैं तुम्‍हें यही दंड उचित समझता हूं। अगर यही अपराध किसी अन्‍य व्‍यक्ति ने किया होता तो मैं उसका सिर कलम करवा देता।" राजा कृष्‍णदेव ने क्रोध से बिफरते हुए कहा।
   तेनालीराम ने राजा कृष्‍णदेव के फैसले के सामने अपना सिर झुका दिया और चुपचाप सिर झुकाकर वहां से चला गया।।
   अगले दिन जब तेनालीराम के विरोधियों को यह पता चला कि तेनालीराम राज्‍य छोड़कर चला गया है तो उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा। वे सब राजा पर अपना प्रभाव बढ़ाने के उपाय सोचने लगें ताकि उनकी पदोन्‍नति हो जाये।
   तेनालीराम चलते-चलते विजयनगर राज्‍य के पड़ोसी राज्‍य की राजधानी पहुंचा और वहां के राजा से मिला। अपने मीठेे छन्‍दों द्वारा उसने राजा के गुणों का गर्जनकर उसे प्रसन्‍न कर दिया।
राजा भी अपनी प्रशंसा सुनकर तेनालीराम पर प्रसन्‍न हो गया।
   जब उसने तेनालीराम से उसका परिचय पूूूछा तो तेनालीराम ने सौम्‍य शब्‍दों में अपना परिचय देते हुए कहा, " मैं विजयनगर के राजा कृष्‍णदेव राय का राज‍नीतिक सलाहकार तेनालीराम हूं।"
   राजा ने तेनालीराम की प्रशंसा पहले से ही सुन रखी थी लेकिन तेनालीराम से उनकी भेंट का यह प्रथम अवसर था। अब तो राजा ने तेनालीराम का भरपूर स्‍वागत-सत्‍कार किया।
   तेनालीराम ने भी अपने इस स्‍वागत के लिए राजा को दिल से धन्‍यवाद दिया।
   फिर राजा बोला, "तेनालीराम, राजा कृष्‍णदेव हमें अपना शत्रु समझते हैं, तो फिर तुम हमारे दरबार में निर्भीक होकर कैसे चले आए? तुम तो राजा कृष्‍णदेव राय के बेहद वफादार हो क्‍या तुम्‍हारे मन में यह विचार नहीं आया कि यहां आकर तुम्‍हारा कोई अनिष्‍ट हो सकता हैै?"
   राजा ने ठीक ही कहा था। फिर भी तेनालीराम ने प्रत्‍युत्‍तर में मुस्‍करा कर कहा, " राजन् ! आप महान् हैं, आपके पास अपार शक्ति है। आप एक सुयोग्‍य प्रशासक भी हैं और अपनी प्रजा का हित भी चाहने वाले हैैं। बिलकुल ऐसे ही हमारे महाराजा भी हैं वे आपको अपना शत्रुु नहीं बल्कि मित्र समझते हैं। आपके इसी भ्रम के निवारण हेतु महाराज ने मुझे आपके पास भेजा है।" तेनालीराम ने वाक्पटु शब्‍दों में कहा।
   " हैं.... आश्‍चर्य है कि तुम्‍हारे महाराज हमारे शत्रु नहीं शुभचिंतक हैं।" आश्‍चर्य से राजा से कुछ चौंकता हुआ-सा बोला, " लेकिन हमारे गुप्‍तचरों ने तो हमें यह सूचना दी थी कि राजा कृष्‍णदेव हमारे राज्‍य पर आक्रमण करने की तैयारी में जुटे हैं।"
   " आप बिलकुल सत्‍य कह रहे हैं राजन् ! हमारे गुप्‍तचरों ने भी महाराज से यही बात आपके लिए कही थी। इसीलिए सच्‍चाई का पता लगाने के लिए हमारे महाराज ने मुझे आपके पास भेजा है। युद्ध कभी किसी के लिए खुशहाली नहीं लाता है, अपितु युद्ध के तो विनाशकारी परिणाम होते हैैै।" तेनालीराम ने अपनी गंभीर वाणी से कहा।
   राजा पर भी तेनालीराम की बातों का गहरा असर हुआ। वह बोला, " युद्ध तो मैंं भी नहीं चाहता लेकिन यह बात साबित कैसे हो कि राजा कृष्‍णदेव सच्‍चे दिल से हमसे सुलह के इच्‍छुक हैं और हमारे राज्‍य का भला चाहने वाले हैं?" 
   " इसके लिए आप कल ही कुछ उपहार व एक संधि प्रस्‍ताव लेकर अपना एक दूत विजयनगर को रवाना कर दें, उस दूत को मैं अपना एक पत्र दूंगा। यदि महाराज कृष्‍णदेव आप द्वारा भेजा उपहार और संधि-प्रस्‍ताव स्‍वीकार कर लें तो उन्‍हें अपना मित्र समझ लेना और यदि वे उपहार लौटा दें, तो आप मुझे जो भी दण्‍ड देंगे, उसे सहर्ष स्‍वीकार कर लूंगा।"
   " लेकिन यह तो मेरी ओर से सुलह का प्रस्‍ताव भेजा जाना मांना जायेगा। और आपके महाराज इसे मेरेी कमजोरी के रूप में न देखने लगें।"
   " लेेकिन अपने राज्‍य की ओर से संधि-प्रस्‍ताव लेकर तो मैं स्‍वयं आपके दरबार में उपस्थित हुआ हूं। पहल तो हमारे राज्‍य की ओर से ही हुई है।"
   राजा की समझ में तेनालीराम की यह बात आ गई। उसने दूसरे ही दिन अपने एक विशेष दूत कुछ उपहारों और संधि-प्रस्‍ताव के साथ विजयनगर रवाना कर दिया। 
   उधर राजा कृष्‍णदेव को भी अपने विश्‍वस्‍त सूत्रों से ज्ञात हो चुका था कि तेनालीराम तो बिलकुल बेकसूर था। उसके धुर-विरोधी दरबारियों ने आपस में सांठ-गांठ करके यह चाल चली थीं।
   जैसे ही पड़ोसी शत्रु राज्‍य के राजा का दूत बेशकीमती उपहार और संधि-प्रस्‍ताव लेकर राजा कृष्‍णदेव के दरबार में हाजिर हुआ तो वह प्रसन्‍नता से गद्गद हो उठे।
   उन्‍होंने मन ही मन तेनालीराम की विद्वता की प्रशंसा की और उस दूत के साथ ही, अपना एक इत्र भी उस राजा के लिए विशेष उपहार लेकर भेज दिया। राजा कृष्‍णदेव ने अपना एक निजी पत्र भी पड़ोसी देश के राजा के नाम लिखा कि तेनालीराम को भी यथाशीघ्र वापस भेज दिया जाए।
   अपने महाराज के बुलावे की सूचना पाकर तेनालीराम ने एक क्षण भी नहीं गंवाया और विजयनगर की ओर रवाना हो गया। तेनालीराम जब वापस विजयनगर पहुंचा तो, राजा कृष्‍णदेव ने उसका विशेष स्‍वागत करते हुए उसे विशेष पुरस्‍कार भी भेंटस्‍वरूप दिया। 
   यह दृश्‍य देखकर जिन दरबारियों ने तेनालीराम के विरुद्ध यह चाल चली थी, वे तो शरम से पानी-पानी हो गए। अब वे दरबार में अपनी नजरें झुकाये खड़़े़े थे। 

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